राजस्थान की तेजस्वी व ओजस्वी, जप-तप, धर्म-कर्म गुणों से परिपूर्ण माटी में कई वीर-वीरांगनाओं ने जन्म लेकर इसका रुतबा ऊंचा किया है लेकिन महाराणा प्रताप उन चुनिंदा शासकों में से एक हैं जिनकी वीरता, शौर्य-पराक्रम के किस्से और गौरवमयी संघर्ष गाथा को सुनकर हर किसी के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अमर राष्ट्रनायक, दृढ़ प्रतिज्ञ और स्वाधीनता के लिए जीवन भर मुगलों से मुकाबला करने वाले साहसिक रणबांकुर महाराणा प्रताप को जंगल-जंगल भटक कर घास की रोटी खाना मंजूर था, लेकिन किसी भी परिस्थिति व प्रलोभन में अकबर की अधीनता को स्वीकार करना कतई मंजूर नहीं था।
ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, 9 मई,
1540 ईसवी को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में पिता उदयसिंह की 33वीं संतान और माता
जयवंताबाई की कोख से जन्मे मेवाड़ मुकुट-मणि महाराणा प्रताप जिन्हें बचपन में 'कीका'
कहकर संबोधित किया जाता, जो अपनी निडर प्रवृत्ति, अनुशासन-प्रियता और निष्ठा, कुशल
नेतृत्व क्षमता, बुजुर्गों व महिलाओं के प्रति विशेष सम्मानजनक दृष्टिकोण, ऊंच-नीच
की भावनाओं से रहित, निहत्थे पर वार नहीं करने वाले, शस्त्र व शास्त्र दोनों में पारंगत
एवं छापामार युद्ध कला में निपुण व उसके जनक थे।
महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय
के साथ बिता , भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे , भील अपने पुत्र को किका कहकर
पुकारते है इसलिए भील महाराणा को कीका नाम से पुकारते थे। लेखक विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा
सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार जब प्रताप का जन्म हुआ था उस समय
उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे हुए थे।
पाली और मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित
था। अतः जयवंता बाई को पाली भेजा गया। वि. सं. ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सं 1597 को प्रताप
का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ। प्रताप के जन्म का शुभ समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना
ने प्रयाण प्रारम्भ कर दिया और मावली युद्ध मे बनवीर के विरूद्ध विजय श्री प्राप्त
कर चित्तौड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया।
राणा उदयसिंह के दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप के उत्तराधिकारी होने पर इसके विरोध स्वरूप जगमाल अकबर के खेमे में चला जाता है। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक में 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुभलगढ़़ दुर्ग में हुआ,दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेन भी उपस्थित थे।
शादियाँ
राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल
११ शादियाँ की थी उनकी पत्नियों और उनसे प्राप्त उनके पुत्रों पुत्रियों के नाम है,
1.
महारानी अजबदे पंवार :- अमरसिंह और भगवानदास
2.
अमरबाई राठौर :- नत्था
3.
शहमति बाई हाडा :-पुरा
4.
अलमदेबाई चौहान:- जसवंत
सिंह
5.
रत्नावती बाई परमार :-माल,गज,क्लिंगु
6.
लखाबाई :- रायभाना
7.
जसोबाई चौहान :-कल्याणदास
8.
चंपाबाई जंथी :- कल्ला,
सनवालदास और दुर्जन सिंह
9.
सोलनखिनीपुर बाई :-
साशा और गोपाल
10.
फूलबाई राठौर :-चंदा
और शिखा
11.
खीचर आशाबाई :- हत्थी
और राम सिंह
महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे
रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए
अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम में जलाल
खाँ प्रताप के खेमे में गया, इसी क्रम में मानसिंह , भगवानदास तथा राजा टोडरमल प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों
को निराश किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया
जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
हल्दीघाटी का युद्ध
यह युद्ध १८ जून १५७६ ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी।
लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा।इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन
अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस
युद्ध मे राणा पूंजा भील का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का
बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी
अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं
सैकडों वीर तोमर राजपूत
योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया।
दिवेर-छापली का युद्ध
1576 में हुए हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी अकबर ने महाराणा को पकड़ने या मारने के लिए 1577 से
1582 के बीच करीब एक लाख सैन्यबल भेजे। अंगेजी इतिहासकारों ने लिखा है कि हल्दीघाटी युद्ध का
दूसरा भाग जिसको उन्होंने 'बैटल ऑफ दिवेर' कहा है, मुगल बादशाह के लिए एक करारी हार सिद्ध
हुआ था।
दिवेर युद्ध की योजना महाराणा प्रताप ने अरावली स्थित मनकियावस के जंगलों में बनाई थी।
भामाशाह द्वारा मिली राशि से उन्होंने एक बड़ी फौज तैयार कर ली थी। बीहड़ जंगल, भटकावभरे
पहाड़ी रास्ते, भीलों, राजपूत, स्थानीय निवासियों की गुरिल्ला सैनिक टुकड़ियों के लगातार हमले और
रसद, हथियार की लूट से
मुगल सेना की हालत खराब कर रखी थी।
सफलता
पू. 1579 से 1585 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में
विद्रोह होने लगे थे और महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे अतः परिणामस्वरूप
अकबर उस विद्रोह को दबाने में उल्झा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। इस
बात का लाभ उठाकर महाराणा ने 1585ई. में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को और भी तेज कर दिया।
महाराणा जी की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरंत ही उदयपूर समेत 36
महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार
स्थापित हो गया।
महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया , उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका
अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी।
बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा
प्रताप समय की लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय
मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अंत 1585 ई. में
हुआ।
मृत्यु
महाराणा प्रताप की मृत्यु अपनी राजधानी चावंड में धनुष की डोर खींचने से उनकी आंत में लगने के
कारण इलाज के बाद 57 वर्ष की उम्र में 29 जनवरी,
1597 को हो गई।
कहते हैं महाराणा प्रताप की मृत्यु का समाचार सुनकर अकबर की आंखों में भी प्रताप की अटल
देशभक्ति को देखकर आंसू छलक आए थे। मुगल दरबार के कवि अब्दुर रहमान ने लिखा है,“ इस
दुनिया में सभी चीज खत्म होने वाली है। धन-दौलत खत्म हो जाएंगे लेकिन महान इंसान के गुण
हमेशा जिंदा रहेंगे। प्रताप ने धन-दौलत को छोड़
दिया लेकिन अपना सिर कभी नहीं झुकाया।”
हिन्द के सभी राजकुमारों में अकेले उन्होंने अपना सम्मान कायम
रखा।
एक बार अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भारत के दौरे पर आ रहे थे, तो उन्होंने अपनी
मां से पूछा… मैं आपके लिए भारत से क्या लेकर आऊं, तो उनकी मां ने कहा था भारत से तुम
हल्दीघाटी की मिट्टी लेकर आना जिसे हजारों वीरों ने अपने रक्त से सींचा है।
एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि
के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए।
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